Wednesday, December 26, 2012

जीने की राह ..यही है सही

"आज़ादी पाने के लिए आपको अच्छे हथियारों की नहीं बल्कि अच्छे विचारों की जरुरत होती है "
- मार्टिन लूथर किंग



मानवता के विकास के बाद राजनैतिक व्यवस्थाओं को बनाने और सही तरह से उनका पालन करने के लिए समय समय पर नए तरीकों का विकास होना भी शुरू हुआ.
दुनिया भर के लोगों ने अपने संघर्ष की यात्रा में किसी न किसी तरीके का अनुसरण करना शुरू कर दिया.
कोई साम्यवादी है तो कोई पूंजीवादी!
मार्क्सवाद , लेनिनवाद , गांधीवाद ,वामपंथ , दक्षिणपंथी फासीवाद , समाजवाद और ऐसे ही तमाम तरह के विचारों का जन्म और प्रसार हुआ .
इनमें से किसी एक को सही और दूसरे को गलत ठहराना संभव नहीं है.
इन सभी विचारधाराओं को आप जानते भी हैं और शायद इनमें से किसी एक का पलान भी करते होंगे.
लेकिन आज मैं यहाँ वर्तमान भारत में पनप रही नयी पद्धतियों के बारे में कुछ बात करना चाहता हूँ .
जैसे ही "वर्तमान भारत" शब्द सुनते हैं , हमारे मन तेजी से नकारात्मक छवियाँ उभर आती हैं. लेकिन इन विपरीत परिस्थितियों में भी कई लोग ऐसे हैं जो अपने खुद के तरीकों से देश और समाज को दुरुस्त करने में जुट गए हैं .




आमीरवाद (Ameerism) :


 " दिल पे लगेगी तभी बात बनेगी " इस टैग लाइन से आमीर खान के सोचने का और काम करने का तरीका साफ़ दिखाई दे जाता है.
पिछले दिनों प्रसारित उनके टीवी प्रोग्राम "सत्यमेव जयते" में सामजिक मुद्दों को इतनी संवेदनशीलता से उठाया कि लोग भावुक होने पे मजबूर हो गए.
हालाँकि फिल्म जगत को हमेशा से ही INDUSTRY कहा गया है यानी पैसे कमाने का एक स्रोत.लेकिन आमीर खान ने इसे समाज को बदलने का एक माध्यम बनाया .
एक के बाद एक उन्होंने ऐसी फ़िल्में बनायीं जिनमें जवलंत मुद्दों को उठाया. गंभीर विषयों पर  आधारित होने के बावजूद उनकी फिल्मों का लोग बेसब्री से इन्तजार करने लगे..क्योंकि उन्होंने हमेशा ही ऐसी फ़िल्में बनायी जिनमें न तो कोई 'उबाऊ भाषणबाजी'  थी न ही अस्वाभाविक कहानी न ही मनोरंजन की कोई कमी .
उनकी फिल्म ''रंग दे बसंती'' ने युवाओं की सोच को झकझोर के रख दिया .
क्या आपको नहीं लगता कि.. अन्ना हजारे के २०११ के आन्दोलन में  और उसके बाद delhi crime के विरोध में,करोड़ों लोगो की भीड़ इकठ्ठा होने के पीछे, आमीर खान की फिल्म 'रंग दे बंसंती' की बहुत बड़ी भुमिका थी ?


कलामवाद (Kalamism): 


 कोई भी व्यक्ति न तो जन्म से आतंकवादी बन कर आता है न ही राष्ट्रवादी बनकर.
जैसे ही किसी शिशु का जन्म होता ना वो भ्रष्ट होता है ना ही संत. जन्म के समय ओसामा भी बिलकुल वैसा ही नवजात शिशु रहा होगा जैसे नेल्सन मंडेला अपने जन्म के समय थे. फिर ऐसी कौनसी चीज होती है जो किसी एक को मानवता का दुश्मन बना देती है और दूसरे को शांति का दूत? जवाब साफ़ है " शिक्षा और परिवेश " !

एपीजे अब्दुल कलाम का तरीका इसी सिद्धांत पर आधारित है. कलाम स्वयं एक महान राष्ट्रवादी व्यक्ति हैं पर आप उन्हें कभी किसी पे ऊँगली उठाते हुए या किसी व्यक्ति का विरोध करते हुए नहीं देखेंगे. क्योंकि वो इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि समस्या ये नहीं है कि आज कोई नेता भ्रष्ट है , असल में जरुरत इस बात कि आने वाली पीढ़ी भ्रष्ट न हो.
आप हमेशा कलाम को किसी न किसी स्कूल या कॉलेज में बच्चों से बात करते हुए देखेंगे.
वो एक ऐसी नयी पीढ़ी बनाना चाहते हैं जो पूरी तरह से देश को समर्पित हो. उनके अनुसार अगर भारत के हर एक बच्चे के मन में बचपन से ही वैज्ञानिक सोच विकसित करनी शुरू कर दें तो भविष्य में बहुत जल्दी ही भारत एक महाशक्ति बन बन जायेगा.
इसी वजह से युवा पीढ़ी के लिए कलाम एक आदर्श बन गए और उनका सपना VISSION 2020 अधिकतर युवाओं का व्यक्तिगत सपना बन गया.


अरविन्दवाद (Arvindism ): 

 अगर भारत की जनता सबसे ज्यादा किसी की बात मानती है तो वो है किसी संत या सन्यासी की बात . ये सच अरविन्द केजरीवाल भी उतनी ही अच्छी तरह से समझते हैं जितनी अच्च्ची तरह से महात्मा गांधी समझते थे . अरविन्द अपने बौद्धिक कौशल से एक क़ानून का "स्मार्ट ड्राफ्ट" तो बना सकते हैं लेकिन वो तब तक बेमतलब है जब तक उसे भारी जनसमर्थन ना मिले . इसीलिए अरविन्द ने अपनी मुहीम का परचम ऐसे हाथों में थमाया जिसका अनुसरण सम्पूर्ण भारत करने को तैयार है . "स्मार्ट ड्राफ्ट" बनाने के साथ की अरविन्द ने एक "स्मार्ट टीम" भी बनायी जिसमें अपने अपने क्षेत्र के कुशल लोग शामिल थे। इस टीम में शामिल लोग थे 'देशभर की पुलिस में अपनी धाक रखने वाली ऑफिसर' , 'युवाओं के चहेते कवि' , 'मीडिया को नियंतिक करने वाले पत्रकार' , 'अच्छे राजनैतिक सलाहकार' और 'एक बेदाग़ छवि वाले समाजसुधारक' । अरविन्द ने ऐसी रणनीति बनायी कि राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी भी उनके आगे चारों खाने चित हो गए और सरकारों के सामने उनकी बात मानने के सिवा को रास्ता नहीं बचा। अन्ना के नाम के साथ चलायी हुई उनकी मुहीम ने देश को मजबूत RTI क़ानून दिया।
जनलोकपाल बिल की मांग को लेकर 2011 में छेड़ा गया आन्दोलन विश्व का अब तक का सबसे बड़ा गैर-राजनैतिक  'अहिंसक' जन आन्दोलन साबित हुआ। सरकार को फिर उनकी बात को मानने की मंजूरी देने के सिवा कुछ नही सूझा .

2011 की शुरुआत उम्मीद को जीत में बदलते हुए देखने की थी। साल के अंत में जीत की उम्मीद खत्म होने लगी। हालांकि अभी भी मेरा साफ मानना है कि अरविन्द के आंदोलन को जो लोग बिखर चुका हुआ मान चुके हैं वो गलती कर रहे हैं। सड़क पर आकर लड़ने के जज्बे में थकान आ सकती है लेकिन समर्थन में कमी आई है ये मैं नहीं मानता। ऐसे में अरविन्द के आंदोलन को बुलबुला मानने की गलती मैं नहीं करूंगा। ये देखना दिलचस्प होगा कि यहां से आगे का रास्ता वो क्या लेता है। क्योंकि अरविन्द हमेशा एक कदम आगे की सोचते हैं .

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