Thursday, December 27, 2012

अब न्याय नहीं प्रतिशोध चाहिए

एक नयी जंग..अधिकारों के लिए:

हाथों में बैनर, तख़्ती और चार्ट पेपर लिए आक्रोश के साथ बढ़ता जा रहा विकराल कारवाँ। सबके दिलों में धधकती ज्वाला और लबों पर तिलमिलाते अल्फ़ाज़ और इन अल्फ़ाज़ों में निहित प्रश्नों की एक लंबी श्रृंख्ला।
आज़ाद भारत के बाद शायद यह दृश्य पहली बार देखने को मिला। मानो सम्पूर्ण देश फिर किसी जंग के लिए एकजुट हो उठ खड़ा हुआ हो। मानो किसी ने देश के ज़मीर पर चोट की हो। मानो निरंकुश सन्नाटे में किसी की चीख हृदय को चीर गई हो। यह एक ऐसा मंजर है जिसे न किसी नेतृत्व की आवश्यकता है और न किसी आह्नान की फिर भी इनके उद्देश्य निश्चित हैं और मंजिल स्पष्ट। यह जंग थी और है औरत के अधिकारों की, परन्तु इस बार इन अधिकारों की श्रेणी में आरक्षण अथवा संपत्ति का अधिकार सम्मिलित नहीं है वरन् यह माँग है सम्मान व सुरक्षा के अधिकार की।

संकीर्ण मानसिकता:

16 दिसंबर को दिल्ली में घटित गैंगरेप की शर्मनाक घटना ने संपूर्ण देश की आत्मा को झकझोर दिया। दरिंदगी की समस्त सीमाओं के परे इस गैंगरेप ने महिलाओं की सुरक्षा एवं उनके सम्मान के प्रति सरकार, न्याय व्यवस्था एवं पुरूष समाज के विचारों पर कई प्रश्न चिह्न आरोपित कर दिये। राजधानी दिल्ली में अगर महिलाओं की सुरक्षा के दावे ठोकने वाली व्यवस्था पर अपराधी इस कदर तमाचा मार रहे तो अन्य राज्यों से क्या अपेक्षा की जाए! ए. सी. ऑफिस में विराजमान आलाकमान कितने गंभीर हैं सड़क की वास्तविकता के प्रति? क्या व्यवस्था परिवर्तन बलिदान के बिना अपेक्षित नहीं है? क्या इसके लिए किसी न किसी की बलि दी जानी इतनी आवश्यक है? और इस बलि के पश्चात् संवेदनशीलता के प्रमाण एवं न्याय प्राप्ति की क्या गारंटी है? शायद कुछ भी नहीं। निष्ठुर व्यवस्था से किसी भी संवेदना अथवा दया की आशा करना मूर्खता है। यह शिकायत मात्र व्यवस्था से ही नही है। हमारा समाज भी अभी तक इसी संकीर्ण मानसिकता के अधीन जीवन यापन कर रहा है। जहाँ एक ओर भ्रूण हत्या, दहेज-हत्या, ऑनर किलिंग जैसे अपराध मानव जाति को शर्मसार कर रहे है वहीं दूसरी ओर बलात्कार जैसे निर्मम कुकृत्य पशु जाति को गौरवान्वित कर रहे हैं कि वे मानव नहीं है।

वास्तविक आक्रोश या महज दिखावा:

इस घटना के प्रति उद्वेलित जनाक्रोश प्रथम दृष्टया सिद्ध करता है कि इंसानियत जीवित है। समाज संवेदनहीनता का समर्थक नही है और हम एक जीवित समाज में विचरण कर रहे है। परन्तु यह भ्रम टूटते अधिक समय नहीं लगा। जब सारा देश इस द्रवित कर देने वाली घटना से उबल रहा है उस समय भी कुछ या कहे बहुत से ऐसे निर्लज उदाहरण समाज में व्याप्त हैं जो इस प्रकार की शर्मनाक घटनाओं के लिए महिलाओं को ही दोषी ठहरा स्वयं को दोषियों के पक्षधर सिद्ध कर रहे हैं। फेसबुक पर एक ऐसे ही प्रोफाइल की सोच ने यह विचारने पर बाधित कर दिया कि इस देशव्यापी प्रदर्शन के मूल मे कितनी ईमानदारी, सच्चाई, मानवीय मूल्य या संवेदनशीलता निहित हैं? कहीं यह सब भेड चाल तो नहीं? या मात्र एक दिखावा? या कहे कि ऐसे प्रदर्शनों में टीवी चैनलों व समाचार-पत्रों में अपनी तस्वीर देखने का माध्यम? फेसबुक के उस प्रोफाइल ने एक बात तो पूर्णतः स्पष्ट कर दी कि घटना भले ही कितनी भी जघन्य हो जाए परन्तु वह राक्षस प्रवृत्ति को परिवर्तित या शर्मसार नहीं कर सकती। जहाँ बलात्कार पीड़िता की दर्दनाक सच्चाई आँसू लाने के लिए पर्याप्त हैं, वहीं कुछ लोगों की सोच यह भी है कि अगर शेर (पुरूष) की गुफा में बकरियाँ (महिलाएँ) जाकर नाचेंगी तो यही होगा। कितना घिनौना एवं घटिया वक्तव्य है यह! प्रश्न यह है कि ऐसे कृत्यों को अंजाम देने वालों को क्या कहा जाए- शेर या कुत्ता? और क्या महिलाएँ बकरियाँ अर्थात् जानवर हैं? क्या यह विचारधारा शिक्षित समाज के अशिक्षित मस्तिष्क की नहीं है? इस वक्तव्य से एक बात तो सिद्ध हो जाती है कि पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं से सम्मान की अपेक्षा तो दूर की बात है इंसानियत की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती। जब उनके लिए महिला का वजूद जानवर तुल्य है तो भला एक जानवर सम्मान का हकदार कैसे हो सकता है? वह तो दुत्कार के भाग्य का स्वामी है। परन्तु दयनीय स्थिति यह है कि जानवर को भी दिन में एक बार प्रेमपूर्वक पुचकार दिया जाता है और बलात्कार जैसे जघन्य कृत्यों से भी वह सुरक्षित है परन्तु दुर्भाग्यशाली महिला जाति इस स्तर पर भी हार जाती है।
यह किसी एक व्यक्ति के विचार नहीं है। इस प्रकार के न जाने कितने विचार हमारे आसपास हमें मानव होने पर शर्मसार कर रहे हैं। शर्मिंदा करने वाले शब्दों का अकाल सा पड़ जाता है जब दिल्ली में हुई इस दर्दनाक बलात्कार की घटना के दो दिन बाद के एक समाचार-पत्र के एक पृष्ठ पर एक राज्य के एक ही क्षेत्र में बलात्कार की नौ घटनाएँ पढ़ने के लिए मिलती हैं।

वैचारिक शुद्धता एवं पवित्रता ही समस्या का समाधान:

राष्ट्रीय शर्म का विषय है कि एक बेटी के लिए तो न्याय की गुहार अभी न्यायव्यवस्था को जगा भी न सकी थी कि कई और बेटियाँ अपनी सिसकियों में ही दम तोड़ गई। ज़रा सोचिए देशव्यापी आंदोलन की चीखें तो इस राक्षस प्रवृत्ति को व्यत्थित कर न सकी और जब देश शान्त भाव से अपने-अपने घरों में सपने बुन रहा होता है तब इन प्रवृत्ति की तिलमिलाहट किस सीमा तक क्रूर होती होगी? इसके प्रमाण दिल्ली की उस पीड़िता के देह पर प्रदर्शित हो रहे हैं? तो क्या यह आंदोलन क्षणभंगुर है या तत्कालिक परिस्थितियों का दिखावा? यह जनसैलाब शायद न्याय व्यवस्था के कुछ पृष्ठ तो परिवर्तित कर दे परन्तु समाज में व्याप्त उस सोच को कैसे परिवर्तित किया जाए जो इन अशोभनीय घटनाओं की जननी है? क्या कोई अंत है इन सबका? कैसे लगेगा अंकुश इन सब पर? कैसे सुरक्षित अनुभव करें माँ-बेटी-बहन स्वयं को? क्या कभी ऐसा देश भारत देश हो सकेगा जब महिलाएँ अपने श्वास की ध्वनि से इसलिए न घबराए कि अगर किसी पुरूष ने उस ध्वनि को स्पर्श किया तो वह अपना वजूद खो देंगी? क्या कभी माता-पिता बेटी के जन्म पर निर्भय हो खुशियाँ मना सकेंगे? क्या कभी इस देश के महिलाएँ गर्व से कह सकेंगी कि हम उस देश की बेटियाँ हैं जहाँ हमें न केवल देवी के रूप में पूजा जाता है वरन् वास्तव में उस पूजा की सार्थकता प्रासंगिक है? क्या यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि ऐसी घटनाओं से फिर कभी यह देश लज्जित नहीं होगा? ऐसी घटनाओं पर लगाम लगाने के लिए किसी भी देश की कानून व्यवस्था का सख्त होना अति आवश्यक है।
बलात्कार और ऐसी ही क्रूरता से लिप्त एसिड केस, ऐसी घटनाएँ हत्या से भी कहीं अधिक संगीन अपराध है। हत्या व्यक्ति को एक बार मारती है परन्तु ये घटनाएँ न केवल भुक्तभोगी को वरन् उससे सम्बन्धित प्रत्येक रिश्ते को हर पल मारती हैं और जीवन भर मारती हैं। प्रत्येक क्षण होती इस जीवित-मृत्यु की सजा मात्र सात वर्ष पर्याप्त नहीं है। देखा जाए तो मृत्युदंड भी इस अपराध के सम्मुख तुच्छ प्रतीत होता है। कई ऐसे देश हैं जहाँ इस प्रकार की घटनाओं की सजा स्वरूप अपराधी को नपुंसक बना दिया जाता है। शायद यह सजा उसे उसके अपराध का अहसास तो दिला सके परन्तु अगर भुक्तभोगी की सिसकियों से पूछा जाए तो वह कभी इस सजा को उस खौफ के लिए पर्याप्त नहीं मानेगी जो उसके मन में घर कर जाता है। उस अविश्वास को इस सजा से कभी नहीं पुनः प्राप्त कर सकेगी जो समाज के प्रति उसके मस्तिष्क में समा जाता है। उस दर्द की भरपाई यह सजा कभी नहीं कर पाएगी जो उसके कोमल अंगों को मिला है। और इस सजा की तसल्ली उसके आत्मविश्वास के लिए कभी पर्याप्त नहीं हो पाएगी। इस प्रकार के अपराध पर अंकुश लगाने के लिए सिर्फ तालिबानी तरीके ही कारगार साबित हो सकते हैं। ऐसे अपराधियों को ज़मीन में आधा दबाकर पत्थरों से मारा जाना चाहिए जिससे प्रत्येक पत्थर इस प्रकार की मंशा रखने वालों तक की रूह को कँपा सके। जिससे कोई भी दुष्ट विचार उत्पन्न होने से पहले ही अपने अंजाम को सोचने पर मजबूर हो सके। सच पूछिए तो महिलाओं को संविधान में लिखित अधिकारों में संपत्ति के अधिकार देने से पूर्व सम्मान का अधिकार दिया जाना चाहिए। उन्हें सुरक्षा के अधिकार की आवश्यकता है। खुली हवा में स्वतंत्रतापूर्वक निर्भिक हो मुस्कराने के अधिकार की आवश्यकता है। अगर ये अधिकार उन्हें प्राप्त हो जाए तो असमानता स्वतः समाप्त हो जाएगी। लैंगिक असमानता का प्रश्न अस्तित्वहीन हो जाएगा। इसके लिए आवश्यकता है मानसिक स्तर की परिधि को विस्तृत करने की। संकीर्णता को समाप्त कर स्वतंत्र सोच के विकास की। अकेली महिला को देखकर जो आकर्षण पुरूष महसूस करते हैं उसके पल्लवित होने से पूर्व उस महिला के स्थान पर अपने घर की महिला को रखकर विचार करें। क्या आप अपने परिजनों के साथ किसी प्रकार का अशुभ होने की कल्पना करना चाहेंगे? यदि नहीं, तो त्याग दीजिए प्रत्येक उस विचार को जो दूसरों के घर की बेटियों के प्रति उमड़ता है। वैचारिक शुद्धता एवं पवित्रता ही इस समस्या का समाधान हो सकती है। ऐसे में परिवार की जिम्मेदारी है कि वे बच्चों में अच्छे संस्कार और अच्छी संस्कृति का विकास करे। उन्हें प्रत्येक जाति (स्त्री व पुरूष) का सम्मान करने की शिक्षा दें। नैतिक मूल्यों का हृास किसी भी समाज के अंत का संकेत है और वर्तमान परिस्थितियाँ भारत के संदर्भ में वास्तव में चिन्तनीय हैं।

Wednesday, December 26, 2012

रक्तबीज

आदि-शक्ति देवी दुर्गा  की पौराणिक कहानियों के एक दानव की कहानी बहुत प्रसिद्द है.उस दानव का नाम था रक्त बीज.
इस दानव को मारना असंभव सा हो गया था क्योंकि जैसे ही कोई उस दानव पे हथियार से वार करता, दानव के ख़ून की एक एक बूँद से नया दानव बन जाता था.
बिलकुल ऐसा ही एक रक्तबीज फिर से हमारे समाज में लाल रंग के साथ फैला जा रहा है.
राजनीति की भाषा में उस दानव को नक्सलवाद कहते हैं.

सरकार की अपनी राजनितिक मजबूरियों के कारण उस पे हथियार-प्रयोग के अलावा और कोई रास्ता नहीं अपना सकती.
सेक्युलरवाद का प्रदर्शन करने वाली सरकार कभी भी वामपंथ (Left Wing) के प्रति कोई विनम्रता नहीं दिखा सकती. बार बार इन माओवादियों के खिलाफ सेना को लड़ने के लिए भेजा जाता है. सेना उनपे बंदूकें चलाती है और परिणाम क्या निकलता है- ये दानव और बढ़ जाता है. और सैनकों व पुलिस के जवानों को शहीद होना पड़ता है. सचमुच ये एक रक्तबीज है जितना काटोगे उतना बढेगा

आज 300 से ज्यादा जिले नक्सलवाद की हिंसा में जल रहे हैं. आखिर ये लाल रंग की हिंसा, गांधी के देश में आई कहाँ से? क्या होता है नक्सलवाद? क्या होता है माओवाद ? किसे कहते हैं वामपंथी?
इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिए हमें इतिहास में बहुत पीछे जाना होगा.

17 वीं सदी में जब महान वैज्ञानिक जेम्स वाट ने भाप के इंजन का अविष्कार किया था तब दुनिया में एक क्रांतिकारी बदलाव आया।
और यहीं से मशीनी युग की शुरुआत हुयी. मशीनी युग के आते ही समाज दो भागों में बंट गया- 1.पूंजीपति वर्ग (Capitalist Class ) और
2.मजदूर वर्ग ( Labor Class )

फैक्ट्रियों से होने वाले बड़े मुफाफे को फिर से नयी फैक्ट्रियों में लगा देने से पूंजीपति वर्ग और अमीर होता चला गया.
मशीनों से बने सामान बहुत सस्ते और अच्छी गुणवत्ता के होने के कारण, हाथ से बने सामानों की बिक्री ख़त्म हो गयी, मजदूर वर्ग और गरीब होता चला गया.

एक तरफ लोगों के हाथ से काम छीन गया और दूसरी तरफ पूंजीपतियों के पास प्रकृति के सभी संसाधनों पे कब्ज़ा करने की ताकत आ गयी.
पूंजीपति वर्ग का ताकतवर हो जाना गैर कानूनी नहीं था, लेकिन किसी एक व्यक्ति के द्वारा पैसों की ताकत से, सारे संसाधनों पे कब्जा कर लेना, जहां दुसरे लोग भूख से मर रहे हों, मानवता की दृष्टि में बिलकुल भी न्यायसंगत नहीं था.

समाज में पैदा हुयी इस दुविधा का हल किसी को नहीं दिखाई दे रहा था. समाज निराशा में डूब गया, वो इस बात से बेखबर था कि अचानक ही करिश्मे का जन्म होने वाला है.
उस करिश्मे का नाम था - कार्ल मार्क्स.

मार्क्स के अनुसार प्रकृति के सभी संसाधनों पे सारे मानवों का बराबर अधिकार है.
कैपिटलिज्म के विरोध में पैदा हुयी ये नयी विचारधारा कम्युनिज्म (कम्युनिस्ठवाद) के नाम से प्रसिद्द हुयी.
पीढ़ी दर पीढ़ी मार्क्स का कम्युनिज्म एक देश से दुसरे देश में फैलता चला गया.
मार्क्स के विचारों को राजनीती में महत्व मिलने लगा.
लेकिन यथार्थ के धरातल पे कैपिटलिज्म अभी भी नहीं हारा था. पैसों की ताकत के आगे विचारों की ताकत बहुत छोटी हो जाती है.
लोगों को लगने लगा था कि कम्युनिज्म सिर्फ कलम से स्थापित नहीं हो सकता.
और इसी के साथ जन्म हुआ कम्युनिज्म की भयानक स्वरुप का- माओत्से तुंग.

चीन में जन्मे विचारक माओत्से तुंग ने कम्युनिज्म को प्रबल करने के लिए हथियार उठाने की अपील की.
माओ के अनुसार कैपिटलिस्ट लोगों की हत्या कर देना ही एक मात्र हल है.
लोगों को माओ की ये बात बहुत ही सही लगी.
माओवाद इतनी तेजी से फैला जितनी तेजी से मार्क्सवाद भी नहीं फैला था.

चीन के निकटवर्ती भारत का उत्तर पूर्व का क्षेत्र भी माओवाद की आग से नहीं बच पाया.
उड़ीसा के एक गाँव नक्सलवाड़ी में आदिवासी माओवादियों ने कई उद्योगपतियों को जिन्दा जला दिया.
ये घटना नक्सलवाद के नाम से जानी गयी. यहीं  से वो रक्तबीज भारत में फैलता चला गया.
मुझे यहाँ  पे एक पुरानी घटना याद आ रही है. जब नक्सलियों ने एक कलेक्टर का अपहरण कर लिया था. जब वो कलेक्टर रिहा हो के आये तब स्वामी अग्निवेश ने उनसे पूछा- "आपको वहाँ किस तरह रखा जाता था ?"
कलेक्टर ने जवाब दिया- "जैसे मैं अपने घर पे रहता हूँ, मुझे वहां भी वैसे ही रखा जाता था, सभी लोग मुझसे दोस्तों की तरह बात करते थे, साथ बैठ के खाना खाते थे और किसी तरह की कोई तकलीफ नहीं होने देते थे"
स्वामी अग्निवेश ने कहा - "उन नक्सलवादियों को मेरा लाल सलाम"

एक नक्सलवादी भी आम आदमी होता है. उनका मकसद सिर्फ नरसंहार करना नहीं है.

पौराणिक दानव रक्तबीज की समस्या को देवी दुर्गा ने अच्छी तरह समझ लिया था और उसका सही समाधान निकाल लिया था.
उम्मीद है आने वाले समय में हमारी सरकार रक्तबीज पे हथियार उठा कर उसे और विकराल बनाने कि बजाये कोई समझदारी का कदम उठाएगी.

ये समस्या उतनी बड़ी नहीं जितनी हमने बना दी है, वो समय भी आएगा जब पूंजीवादी-अन्याय का हल, नक्सलवाद न हो कर कोई संवैधानिक और मानवीय तरीका होगा.

जीने की राह ..यही है सही

"आज़ादी पाने के लिए आपको अच्छे हथियारों की नहीं बल्कि अच्छे विचारों की जरुरत होती है "
- मार्टिन लूथर किंग



मानवता के विकास के बाद राजनैतिक व्यवस्थाओं को बनाने और सही तरह से उनका पालन करने के लिए समय समय पर नए तरीकों का विकास होना भी शुरू हुआ.
दुनिया भर के लोगों ने अपने संघर्ष की यात्रा में किसी न किसी तरीके का अनुसरण करना शुरू कर दिया.
कोई साम्यवादी है तो कोई पूंजीवादी!
मार्क्सवाद , लेनिनवाद , गांधीवाद ,वामपंथ , दक्षिणपंथी फासीवाद , समाजवाद और ऐसे ही तमाम तरह के विचारों का जन्म और प्रसार हुआ .
इनमें से किसी एक को सही और दूसरे को गलत ठहराना संभव नहीं है.
इन सभी विचारधाराओं को आप जानते भी हैं और शायद इनमें से किसी एक का पलान भी करते होंगे.
लेकिन आज मैं यहाँ वर्तमान भारत में पनप रही नयी पद्धतियों के बारे में कुछ बात करना चाहता हूँ .
जैसे ही "वर्तमान भारत" शब्द सुनते हैं , हमारे मन तेजी से नकारात्मक छवियाँ उभर आती हैं. लेकिन इन विपरीत परिस्थितियों में भी कई लोग ऐसे हैं जो अपने खुद के तरीकों से देश और समाज को दुरुस्त करने में जुट गए हैं .




आमीरवाद (Ameerism) :


 " दिल पे लगेगी तभी बात बनेगी " इस टैग लाइन से आमीर खान के सोचने का और काम करने का तरीका साफ़ दिखाई दे जाता है.
पिछले दिनों प्रसारित उनके टीवी प्रोग्राम "सत्यमेव जयते" में सामजिक मुद्दों को इतनी संवेदनशीलता से उठाया कि लोग भावुक होने पे मजबूर हो गए.
हालाँकि फिल्म जगत को हमेशा से ही INDUSTRY कहा गया है यानी पैसे कमाने का एक स्रोत.लेकिन आमीर खान ने इसे समाज को बदलने का एक माध्यम बनाया .
एक के बाद एक उन्होंने ऐसी फ़िल्में बनायीं जिनमें जवलंत मुद्दों को उठाया. गंभीर विषयों पर  आधारित होने के बावजूद उनकी फिल्मों का लोग बेसब्री से इन्तजार करने लगे..क्योंकि उन्होंने हमेशा ही ऐसी फ़िल्में बनायी जिनमें न तो कोई 'उबाऊ भाषणबाजी'  थी न ही अस्वाभाविक कहानी न ही मनोरंजन की कोई कमी .
उनकी फिल्म ''रंग दे बसंती'' ने युवाओं की सोच को झकझोर के रख दिया .
क्या आपको नहीं लगता कि.. अन्ना हजारे के २०११ के आन्दोलन में  और उसके बाद delhi crime के विरोध में,करोड़ों लोगो की भीड़ इकठ्ठा होने के पीछे, आमीर खान की फिल्म 'रंग दे बंसंती' की बहुत बड़ी भुमिका थी ?


कलामवाद (Kalamism): 


 कोई भी व्यक्ति न तो जन्म से आतंकवादी बन कर आता है न ही राष्ट्रवादी बनकर.
जैसे ही किसी शिशु का जन्म होता ना वो भ्रष्ट होता है ना ही संत. जन्म के समय ओसामा भी बिलकुल वैसा ही नवजात शिशु रहा होगा जैसे नेल्सन मंडेला अपने जन्म के समय थे. फिर ऐसी कौनसी चीज होती है जो किसी एक को मानवता का दुश्मन बना देती है और दूसरे को शांति का दूत? जवाब साफ़ है " शिक्षा और परिवेश " !

एपीजे अब्दुल कलाम का तरीका इसी सिद्धांत पर आधारित है. कलाम स्वयं एक महान राष्ट्रवादी व्यक्ति हैं पर आप उन्हें कभी किसी पे ऊँगली उठाते हुए या किसी व्यक्ति का विरोध करते हुए नहीं देखेंगे. क्योंकि वो इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि समस्या ये नहीं है कि आज कोई नेता भ्रष्ट है , असल में जरुरत इस बात कि आने वाली पीढ़ी भ्रष्ट न हो.
आप हमेशा कलाम को किसी न किसी स्कूल या कॉलेज में बच्चों से बात करते हुए देखेंगे.
वो एक ऐसी नयी पीढ़ी बनाना चाहते हैं जो पूरी तरह से देश को समर्पित हो. उनके अनुसार अगर भारत के हर एक बच्चे के मन में बचपन से ही वैज्ञानिक सोच विकसित करनी शुरू कर दें तो भविष्य में बहुत जल्दी ही भारत एक महाशक्ति बन बन जायेगा.
इसी वजह से युवा पीढ़ी के लिए कलाम एक आदर्श बन गए और उनका सपना VISSION 2020 अधिकतर युवाओं का व्यक्तिगत सपना बन गया.


अरविन्दवाद (Arvindism ): 

 अगर भारत की जनता सबसे ज्यादा किसी की बात मानती है तो वो है किसी संत या सन्यासी की बात . ये सच अरविन्द केजरीवाल भी उतनी ही अच्छी तरह से समझते हैं जितनी अच्च्ची तरह से महात्मा गांधी समझते थे . अरविन्द अपने बौद्धिक कौशल से एक क़ानून का "स्मार्ट ड्राफ्ट" तो बना सकते हैं लेकिन वो तब तक बेमतलब है जब तक उसे भारी जनसमर्थन ना मिले . इसीलिए अरविन्द ने अपनी मुहीम का परचम ऐसे हाथों में थमाया जिसका अनुसरण सम्पूर्ण भारत करने को तैयार है . "स्मार्ट ड्राफ्ट" बनाने के साथ की अरविन्द ने एक "स्मार्ट टीम" भी बनायी जिसमें अपने अपने क्षेत्र के कुशल लोग शामिल थे। इस टीम में शामिल लोग थे 'देशभर की पुलिस में अपनी धाक रखने वाली ऑफिसर' , 'युवाओं के चहेते कवि' , 'मीडिया को नियंतिक करने वाले पत्रकार' , 'अच्छे राजनैतिक सलाहकार' और 'एक बेदाग़ छवि वाले समाजसुधारक' । अरविन्द ने ऐसी रणनीति बनायी कि राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी भी उनके आगे चारों खाने चित हो गए और सरकारों के सामने उनकी बात मानने के सिवा को रास्ता नहीं बचा। अन्ना के नाम के साथ चलायी हुई उनकी मुहीम ने देश को मजबूत RTI क़ानून दिया।
जनलोकपाल बिल की मांग को लेकर 2011 में छेड़ा गया आन्दोलन विश्व का अब तक का सबसे बड़ा गैर-राजनैतिक  'अहिंसक' जन आन्दोलन साबित हुआ। सरकार को फिर उनकी बात को मानने की मंजूरी देने के सिवा कुछ नही सूझा .

2011 की शुरुआत उम्मीद को जीत में बदलते हुए देखने की थी। साल के अंत में जीत की उम्मीद खत्म होने लगी। हालांकि अभी भी मेरा साफ मानना है कि अरविन्द के आंदोलन को जो लोग बिखर चुका हुआ मान चुके हैं वो गलती कर रहे हैं। सड़क पर आकर लड़ने के जज्बे में थकान आ सकती है लेकिन समर्थन में कमी आई है ये मैं नहीं मानता। ऐसे में अरविन्द के आंदोलन को बुलबुला मानने की गलती मैं नहीं करूंगा। ये देखना दिलचस्प होगा कि यहां से आगे का रास्ता वो क्या लेता है। क्योंकि अरविन्द हमेशा एक कदम आगे की सोचते हैं .

Monday, December 24, 2012

Turning Point


We are living in very exciting era.
History runs very smooth. It is very rare when one sees a very huge ups and downs in the smooth going history.
We are very lucky because we not only became eye-witness of a great revolution of history but also we became part of it. I am going to mention four turning points of present era:


1.IT Revolution:


I remember my childhood, when there were only two or three houses which had telephones.
One day I saw a hypothetical photograph ‘Imagination of wireless phone’ ,on a science fiction book. I was wondered and said “It is only an imagination, it can’t become true “But today when I use my smart phone, I am pleasantly surprised to see the advanced IT technology.
It took only 7-8 years, in front of our eyes IT revolution become responsible to change our life style completely.

IT revoltion: We became eye witness of the World-Transformation


2.Power of AAM-AADMI:


It was a very hard law of society, Where society exists in two parts- ruler and ruled. But in present time when an AAM AADMI came in front with his strong will, all rulers are afraid of him.
Rulers don’t have any way to break common man’s power because common-man has  nothing to lose, and that’s the main power of him.


Rulers are afraid of ruled-aam-aadmi

3.End of Religious Orthodox:


Third and very important change which I saw in our society when a movie “Oh My God” was released. A film-maker makes a movie which has tart topics.
(saying a black stone to shiv-ling, don’t go to any temple from now).
I was really pleasantly surprised to see that people easily accept this movie.

Ending of Religious Orthodox

4.New Definition of Culture:


When one heard name of Indian-Culture, a picture came in his mind-‘few people having bagwa on their shoulders and laathis in their hands’. But it is not correct imagination of culture.
One day someone asked Jain Muni Tarun Sagarji “what is culture”. He replied-“1.If you are hungry and then you eat –it is prakriti (Nature). If you are not hungry and then you eat- it is vikriti (disorder). If you are hungry and you give your food to another hungry man- it is sanskriti (Culture).
Culture doesn’t mean to wear any specific kind of cloths or any specific kind of worship-way.Culture is something to become real human , well civilized.
When many MNC’s came in our country they bought some culture with them. Today if we are eating fruit with walking on road, for throwing skin of fruit, we look for dust-been. Our language has become very polite.
We became humble for all religions and their festivals. That’s the true culture.


New Definition of Culture

Today our country is filled with anger because of crime against women. But as we are living in 'era of change' I believe it is going to be something big. We just need to see how and in which form this change will come.
It's not just a hope, time is evident, our tomorrow will be very beautiful. We can and we will make a difference.